एक भरे हुए गिलास में कितना पानी भरा जा सकता है. इसका उत्तर हम सब अच्छे से जानते हैं, उसके बाद भी हमारी स्थिति उस भरे हुए गिलास से अधिक नहीं है. जिसमें और अधिक भरने की अपेक्षा के साथ पानी उड़ेला जा रहा है. कितना अच्छा हो कि हमारे मन थोड़े रिक्त हो जाएं. उनमें पूर्वाग्रह न हों. वह जंगल सरीखे हों. अनगढ़, प्रकृति के पास. न कि शहर के बाग-बगीचों की तरह!
हम ऐसे समय में हैं, जहां हर दिन नए तरह के संकट खड़े हो रहे हैं. कभी अर्थव्यवस्था की पटरी उलटी चलने लगती है तो कभी कोरोना सरीखे वायरस जीवन पर संकट के साथ हाजिर हो जाते हैं. हम इनसे लड़ ही रहे होते हैं कि समाज की हिंसा, टकराहट नए-नए वेश में हमारे सामने आने लगती है. यह सब हमें कुछ नया सोचने, विचारने, करने से रोकने का काम करते हैं.
ओशो ने इसे सरलता से समझाया है. साइकोटिक हठधर्मी होते हैं. वह कहेंगे-मेरा विचार ही महान. सत्य वही जो मैंने कहा. यह खतरनाक है. ऐसे विचार का कारण इनका अनुभव नहीं है. बल्कि यह है कि वह भीतर से बहुत अनिश्चित हैं. अलग-अलग कारणों से. इसलिए वह अपने हठ/विचार के आगे किसी की बात नहीं सुनते. ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जिंदगी असल में इतनी बड़ी है कि किसी की भी हठधर्मिता को बर्दाश्त नहीं कर सकती.
दूसरी ओर वह हैं, जो न्यूरोटिक हैं. वह निरंतर दुविधा में हैं. छोटी-छोटी बातें तय नहीं कर पाते. हर बात के लिए दूसरे की ओर दौड़ते हैं. आज कौन-सा कपड़ा पहना जाए. क्या खाया जाए. कहां जाएं. यहां तक कि आज खुश हैं या नहीं. यह भी तय करना इनके लिए मुश्किल का काम होता है.
इनके अवचेतन में गहरी अनिश्चितता है. हर पल दुविधा में. ऐसे लोगों की साधारण पहचान इससे भी होती है कि वह अपने बच्चों की हर बात में टोका-टाकी करते हैं. बच्चा यह तय नहीं कर पाता कि छोटी प्लेट में खाना खाऊं या बड़ी प्लेट में.
यह कहना मुश्किल है कौन साइकोटिक है और कौन न्यूरोटिक. हमारे भीतर यह दोनों ही घुले-मिले हुए हैं. किसी में साइकोटिक ज्यादा है तो किसी में न्यूरोटिक. यह दोनों ही हमारे व्यक्तित्व को स्थिरचित्त नहीं रहने देते. मन भारी होता जाता है. और भारी मन कोई फैसला कैसे कर सकता है.
हम बाहर से कुछ और, भीतर से कुछ और होते जाते हैं. आपने बहुत से लोगों को देखा होगा कि वह अपने ऑफिस में कुछ और होते हैं तो घर पर कुछ और. घर पर बहुत गुस्सैल व्यक्ति अपने कामकाजी जीवन में अलग रूप में होता है. इसके उलट भी लोग हैं. सबसे बड़ा संकट यही है. चेतन और अचेतन मन के बीच की दूर हमें हमारी आत्मा से दूर करती जाती है.
थोड़ा ठहरिए, पिछली बार आपने कब कोई फैसला करते समय अपने भीतर की आवाज सुनने की कोशिश की थी. असल में यह एक ऐसा अभ्यास था जिसमें हमारे अनेक संकट टालने की शक्ति थी, लेकिन हम अपनी नितांत ‘भारतीय दवा’ से दूर होते जा रहे हैं.
याद कीजिए, पहले दादी/ नानी की कहानियों में हमारा हीरो जब भी कहीं फंसता था, कोई न कोई उसके पास होता जो उसे भीतर की आवाज/आत्मा की आवाज सुनने को कहता. उसके बाद उसके फैसले अक्सर सही होते. बात चाहे सात समंदर पार परियों का घर खोजने की होती या पहाड़ियों की पहेली सुलझाने की होती. भीतर की आवाज तक अगर कोई पहुंच सके तो उससे बढ़कर सलाह दूसरी हो नहीं सकती.
इसलिए, अपने चित्त से हठ और दुविधा के परदे हटाइए. इससे वह फैसले लेने में सुविधा होगी, जो हमारे जीवन से गहराई से जुड़े हैं. जो दूसरा कोई हमारे लिए नहीं कर सकता.