दिल्ली में हिंसा हमारे गुस्से, नफरत से उबलते हुए दिमाग की ऐसी तस्वीर सामने लाई है, जिसका खुद समाज को अंदाज नहीं था. हम किसी के उकसावे पर हिंसा की लपटों में कूद पड़ें यह तो संभव है. लेकिन इतनी तेज़ी से हम इन सबके लिए तैयार हो जाएंगे, इसका अहसास नहीं था.
यह हिंसा हम सबके लिए सजग होने का अवसर लेकर आई है. आगे बहुत कुछ इससे वीभत्स हो सकता है. उससे बचने का तरीका केवल यही है कि दिल्ली में जो कुछ घट रहा है, समाज उससे मुकाबले को सीधे तौर पर तैयार हो.
समाज जब तक अपने विवेक को लेकर चौकस नहीं होगा, नेता उसे अपनी कठपुतली बनाए रखने के लिए इससे भी बदतर तरीके इस्तेमाल करने से पीछे नहीं छूटेंगे.
हम जिस तरह की भाषा को निरंतर महत्व दिए जा रहे हैं, अपने व्यवहार में एक-दूसरे के लिए प्रेम, उदारता और विश्वास को छोटा किए जा रहे हैं. उसके परिणाम देर–सबेर इसी रूप में सामने आने हैं. हम अपने शब्दों के महत्व को केवल यह कहकर अनदेखा नहीं कर सकते कि अरे! इसको कोई नहीं सुनता. हमारा हर शब्द ब्रह्मांड की यात्रा पर होता है. शब्द लौटकर आते ही हैं
इधर कुछ बरसों में ‘हिंदू-मुस्लिम’ भारतीय टेलीविजन (टीवी) का सबसे प्रमुख विषय बन गए हैं. हर खबर में टीवी दोनों धर्मों को तलाशने में जुटा रहता है. अधिकांश चैनल धर्म के आधार पर वक्ता तय करते हैं. अशिक्षित, कट्टर और पूर्वग्रह से भरे विशेषज्ञ, क्रोध में उबलते एंकर के साथ जो हिंसा समाज की ओर भेज रहे हैं. समाज की उदारता, मोहब्बत के पैगाम उसका ठीक तरह से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. संविधान में हमारी सर्वोच्च आस्था होनी चाहिए. लेकिन टीवी में हर मिनट संविधान की मूल भावना का जैसे मखौल उड़ाया जा रहा है. हम स्वयं को मनुष्यता, उदारता, समरसता के समंदर से मेंढक का कुंआ बनाने में जुटे हुए हैं.
वह हमारे सिनेमा में उस किरदार की तरह दिखने लगे हैं जो नायक से खुद को अलग दिखने के फेर में ऐसे रास्ते पर निकल जाता है, जहां अंत में उसके पास अंधेरी दुनिया के अलावा कुछ नहीं बचता. उसे लगता है, वह लोगों को बांटकर उन पर राज कर सकता है लेकिन वह केवल अपनी खोखली दुनिया रच रहा होता है.
टीवी ने अपने को बचाए रखने के लिए समाज की एकता और समरसता को खतरे में डाल दिया है. समाज में जो हिंसा, धार्मिक उन्माद, गुस्सा दिख रहा है, उसमें टीवी एंकर की खास भूमिका है. वह रात-दिन गुस्सा, नफरत परोस रहे हैं. हर चीज़ में ‘हिंदू –मुसलमान’ तलाशने में जुटे टीवी की इस हिंसा में अदृश्य, ठोस भूमिका है.
घर जलाने, हत्या करने को तैयार इन युवाओं के हाथ खून से कौन रंग रहा है. अगर अब तक आप यह तय नहीं कर पा रहे हैं तो देश तो दूर, आप अपने परिवार को भी नहीं बचा पाएंगे.