हमारा मूल स्वभाव क्या है. जन्म लेने के बाद पहला काम रोने का करते हैं. गुस्सा होने का नहीं. नवजात गोद में आने के बाद रोता है. वह गुस्से से नहीं देखता है. नाराजगी से नहीं देखता. इसका सहज अर्थ हुआ कि वह धरती को देखकर डर गया है. अब वह नई दुनिया में है. मां के सुरक्षित गर्भ के बाहर उसका पहला पल! जिसका पहला ही काम आंसू से जुड़ा हुआ है. वह करुणा के करीब हो सकता है. हिंसा के नहीं. हिंसा तो सीखते हैं. धीरे-धीरे. दूसरों को देखते हुए. शब्द, भाव भंगिमा और क्रिया से. हम सीखते हैं दूसरे को मारना. उससे भेदभाव करना. अपने हितों के लिए दूसरे को दांव पर लगाना.
धर्म का भेद जितना इस समय सिखाया जा रहा है, वह धीमे-धीमे दिमाग में भरा जाता है. आहिस्ता-आहिस्ता. हर चीज़ तूफान में नहीं उखड़ती. बरगद की शाखाएं हर दिन बहने वाले हवा के झोंकों से भी कमजोर होती रहती हैं. हमारे बीच हिंसा ऐसे ही धीरे-धीरे बहाई जा रही है. विश्वास, स्नेह, आत्मीयता को हिंसा के झोंके तोड़ते जा रहे हैं. समाज में हिंसा रचने का काम नया नहीं है. नियमित अंतराल पर सत्ता के लिए ऐसे खेल रचे जाते रहे हैं. लेकिन अबकी बार खेल गहरा है.
उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि यह तस्वीर उनके करियर को तबाह कर सकती है. इससे भी खतरनाक है, उनके माता-पिता की मंजूरी. जिन्हें इस बात की चिंता नहीं दिखती कि इससे बच्चों की जिंदगी तबाह हो सकती है. बच्चे हिंसक हो चले हैं, अपने माता-पिता की मंजूरी से.
हम अगर अपने ही बच्चे के हाथ में तमंचे थमाते हुए नहीं डर रहे हैं तो इससे भयावह विचार कोई दूसरा नहीं हो सकता. हममें से अधिकांश लोग हिंसा को शिक्षा से सहज जोड़ते हुए मिल जाएंगे. लेकिन ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि अब तो बड़ी से बड़ी हिंसा में हिस्सेदार लोग पूरी तरह से शिक्षित हैं. उनकी पढ़ाई लिखाई में कहीं कोई कमी नहीं.
असल में शिक्षा स्वयं में कुछ नहीं है. वह अपने में एक अधूरी बात है. शिक्षा हमें तब तक बेहतर मनुष्य नहीं बनाती, जब तक उसे हम मानवीय मूल्य, मनुष्यता और सहृदयता से नहीं जोड़ते. ऐसा करने में असफल समाज कितना ही शिक्षित क्यों न हो वह हिंसात्मक विचार के आगे पराजित हो जाएगा.
गांधी बार-बार दुहराते हैं, हिंसा को हिंसा से हराना संभव नहीं. हिंसा केवल प्रेम,सद्भाव और अहिंसा से पराजित हो सकती है. हिंसा का सामना हिंसा से कहीं किया जा सकता. उसके लिए भीतर से अहिंसा में आस्था होना जरूरी है. अहिंसक होना सरल नहीं. इसे सीखना होता है. यह धीरे-धीरे गहरे अभ्यास से हासिल होती है. इसे समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन अंतत: हमें इसी रास्ते जाना है. क्योंकि मनुष्य और मनुष्यता दोनों का इसके बिना भला होना संभव नहीं.
राजनीति हिंसा का इस्तेमाल वैसे ही करती है, जैसे सियार अपना भेद छुपाने के लिए रंग चुनते हैं. अंतर बस इतना है कि वह बोलते ही पकड़े जाते हैं. जबकि राजनेता पकड़े नहीं जाते क्योंकि वह हिंसा के रंग में हमें भी चतुराई से रंग देते हैं.
राजनीति से सावधान रहे बिना हम उस सियार को नहीं पकड़ सकते, जो हमें धीरे-धीरे हिंसक बनाए जा रहा है. सोशल मीडिया, समाज की भाषा में उतरती आक्रामकता इसका सबसे सरल उदाहरण है. आप मुझसे असहमत हो सकते हैं, लेकिन ऐसा होते ही आप मुझ पर अपशब्द और गालियों की बौछार कर दें. आप मेरी हत्या की तैयारी करने लगें. यह कौन का जीवनराग है.
हिंसा ने हमारा सबसे बड़ा नुकसान यही किया है. वह हमें हर दिन क्रूर और हत्यारा बना रही है. अपने बच्चों को टीवी से दूर रखिए. सोशल मीडिया में मित्रों को चुनने में सजग रहिए. अपने विचार को लगातर परखते रहिए, अगर उनमें हिंसा की ओर जाने की थोड़ी भी झलक दिखे तो तुरंत अपने मन की पड़ताल करिए. क्योंकि कई बार हम अनजाने ही हिंसा सीखते जाते हैं, हिंसक होते जाते हैं.